मैं मृत्यु हूँ
मैं जीवन हूँ
तुम जब तक समझ सको
मैं बहुत कुछ हूँ
मैं बन सकती हूँ तुम
तुम स्वत्व को पहचान सको
तो तुम भी मैं हो
................. निःसंदेह
मैं कोई दंभ है ही नहीं
दंभ तो प्रतिस्पर्धा है हम के मध्य
मैं अकेला है
वह जानता है
सिंह समूह में नहीं चलता
हंस पातों में नहीं उड़ते
अकेले में ही सत्य उभरता है
मैं अकेलेपन में एक दिव्य प्रकाश है
मैं - रश्मि
दिव्य प्रकाश में अस्तित्व की परिधि बन आज मेरे साथ हैं ज्योति खरे जी -
मैं अहसास की जमीन पर ऊगी
भयानक,घिनौनी,हैरतंगेज
जड़हीना अव्यवस्था हूँ
जीवन के सफ़र में व्यवधान
रंग बदलते मौसमों के पार
समय के कथानक में विजन----
जानना चाहतीं हूँ
अपनी पैदाईश की घड़ी,दिन,वजह
जैसे भी जी सकने की कल्पना
लोग करवाते हैं
क्या वैसे ही मुझे वरण कर पाते हैं
जीवन में------
प्रश्न बहुत हैं,मुझमें,मुझसे
काश आत्मविश्लेषण कर पाती
आतंक नाम के जंगल में नहीं
स्वाभाविक जीवन क्रम में भी
अपनी भूमिका तय कर पाती------
मैं सोचती थी
प्रश्न सभी हल कर लूंगी
संघर्षों से मुक्त कर दूंगी
लोग करेंगे मेरी प्रतीक्षा
वैसे ही, जैसे करते हैं जन्म की-----
मेरा अस्तित्व अनिर्धारित टाइम बम है
मैं जीवन की छाती में
हर घड़ी गड़ती हूँ,कसकती हूँ
जिजीविषा के तलवे में
कील की तरह------
हर राह पर रह-रह कर मैने
अपना कद नापा है
मापा है अपना वजन
मेरी उपस्थिति से ज्यादा भयावह,असह है
मेरी उपस्थिति का दहशतजदा ख्याल
पर मैं कभी नहीं जीत पाई
प्रणयाकुल दिलों की छोटी सी जिन्दगी में
नहीं खोद पाई अफ़सोस की खाई------
क्यों लगा लेते हैं मुझे गले
प्रेम से परे,ऊबे और मरने से पहले
मरे हुये लोग
दो प्रेमी भर लेते हैं आगोश में
प्रेम की दुनियां में किसी
सुकूनदेह घटना की तरह-----
मैं अपने आप को मिटा देना चाहती हूँ
स्वाभाविक जीवन और
तयशुदा मृत्यु के बिन्दुपथ पर
नहीं अड़ना चाहती
किसी गाँठ की तरह
क्यों कि मैं
मृत्यु हूँ ------
"ज्योति खरे"